नमस्कार।
अपनी एक कविता आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। युवाओं को सम्बोधित इस कविता में साहित्यिक त्रुटियाँ बेशक होंगी परन्तु आपको मेरी भावनाओं को समझने में कोई परेशानी नहीं होगी ,ऐसा मेरा विश्वास है।
युवा (कहाँ खो गया सब )''
दिन रात चलने का वो वादा ,
हिमालय की चोटी पर पहुँचने का वो इरादा।
दुनिया फतह करने का वो माद्दा ,
कहाँ खो गया सब...........
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वो मंजिल के लिए जलती चिंगारी ,
आज आग क्यों नहीं बनी।
समाज के दुश्मनों के साथ तेरी ,
आज क्यों नहीं ठनी।।
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कहाँ खो गया तेरा वो साहस ,
अपने हक़ की खातिर बड़े बड़ों के प्रति ,
तेरा वो दुस्साहस।।
कहाँ खो गया सब..............
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कहाँ है वो आशाओं के सपन ,
चरित्र की वो तपन।
कदमों की तरुणाई ,
और जुबां की ऊँचाई।।
कहाँ खो गया सब ..........
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क्या खो गया सबकुछ ,
आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में।
क्या खो गया सबकुछ ,
पैसे के गुणा -भाग...
घटाव और जोड़ में।।
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अरे! युवा है तू ..
पहचान खुद को ,
पिछलग्गू न बन,
जान खुद को।
दूसरों की न सुन ,
दे मान खुद को।।
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विश्व को एक दिशा तो दिखला जरा ,
अपने अंदर वो जोश ,
वो माद्दा तो ला जरा।
पहाड़ नहीं पत्थर ही हैं वे ,
इन रस्ते के अवरोधों को ,
मन से तो हिला जरा।।
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सुन्दर प्रस्तुति ......अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ......सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ......सार्थक रचना।
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