''चलो,उठो,कुछ कर दिखाने का समय आ गया है।'' एक निहायत ही ग्रामीण और सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाला और एक विद्यार्थी जिसके मन में जब तब सवालों के कीड़े कुलबुलाने लगते हैं तो वह कविता की शरण लेता है। बस! यही मेरा परिचय है! स्वागत है आपका मेरी दुनिया में.……
गुरुवार, 26 मार्च 2015
मंगलवार, 10 मार्च 2015
बच्ची (कविता )
नमस्कार।
कुछ दो दिन पहले 'महिला दिवस' पूरे विश्व में धूमधाम से मनाया गया। हिंदुस्तान में भी महिलाओं की स्थिति,बलात्कार,घरेलू हिंसा आदि विषयों पर जमकर बहसें हुई। लेकिन मुझे लगता है कि हमारे यहां स्त्री के प्रति सोच का सही-सही अंदाजा भ्रूण हत्या के आंकड़ों को देखकर ही लगाया जा सकता है। इतने प्रयासों के बाद भी स्थिति जस की तस है। मेरी आज की कविता का विषय भी भ्रूण हत्या है। पेट में पल रही एक बच्ची की भी सुनिए जरा !!!!!
'' बच्ची ''
तन की कच्ची,
मन की सच्ची हूँ।
मां जच्चा है,
मैं बच्ची हूँ।।
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मां की कोख में बैठी,
बुन रही हूँ सपने।
मेरे जन्म पर,
क्या खुश होंगे मेरे अपने।।
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कहने को कहते हैं वो,
बच्चा भगवान का रूप होता है।
निडर ,कोमल ,सच्चा,
प्रभु का स्वरूप होता है।।
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फिर क्यूं भगवान के इन रूपों की,
कोख में ही बलि दी जाती है।
मेरे जैसी अनगिनत मासूम,
बाहर आने से पहले ही खत्म की जाती है।।
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ऐसा घृणित कार्य करने वालों,
हमारा कसूर बताओ।
बिन मां -बहिन रहोगे,
है मंजूर ! बताओ।।
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सवाल करती हूँ सामाजिक प्रक्रिया से भी,
दहेज़ जैसी जटिल क्रिया से भी।
क्या हम हैं कारण,
इस परम्परा की,
समाज को घोंटकर पीने वाली,
इस सुरा की।।
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क्यूं हमारा जीवन शुरू होने से पहले ही,
समाप्त किया जाता है।
जान -बूझकर लड़कियों का,
अकाल व्याप्त किया जाता है।
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कहती हूँ..... पछताओगे एक दिन,
अपनी गलतियां खुद ही,
जताओगे एक दिन।
खत्म होने की कगार पर,
होगी जब दुनिया हमारे बिन।
खुद को इंसान नहीं,
हैवान पाओगे एक दिन।।।।
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अनिल ''अबूझ''
शनिवार, 28 फ़रवरी 2015
तुम और मैं (कविता)
नमस्कार।
कुछ लोगों की शिकायत रहती है कि मैं रोमांटिक जैसा कुछ नहीं लिखता। तो लीजिये कुछ उसी प्रकार की चंद पंक्तियाँ पेश है। अब ये रोमांटिक है या नहीं,ये मैं आप पर छोड़ देता हूँ।
और हाँ! दिल से पढियेगा,दिमाग से नहीं।
'' तुम और मैं ''
कच्ची कलि हो तुम,
कठोर तना मैं।
पुष्प-पुष्प विचरती अलि तुम,
एक स्थान पर स्थिर जड़ बना मैं।।
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हवाओं संग घूमती
फिरती हर गली तुम,
पाषाण सा दुनियावी उपेक्षाओं से
सना मैं।।
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खुशनुमा जीवन को देखती
महसूस करती,
नाजों से पली तुम।
अभावों में जीता
गिरता-पड़ता,
आज लौह-स्तंभ बना मैं।।
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अपनी जरूरतों को पूरा कर,
ये चली-वो चली तुम।
तुम्हारी पदचापों की धीमी होती आवाज सुनता रहा,
खड़ा पत्थर बना मैं।।
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अनिल ''अबूझ''
शनिवार, 21 फ़रवरी 2015
युवा(कहाँ खो गया सब );कविता
नमस्कार।
अपनी एक कविता आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। युवाओं को सम्बोधित इस कविता में साहित्यिक त्रुटियाँ बेशक होंगी परन्तु आपको मेरी भावनाओं को समझने में कोई परेशानी नहीं होगी ,ऐसा मेरा विश्वास है।
युवा (कहाँ खो गया सब )''
दिन रात चलने का वो वादा ,
हिमालय की चोटी पर पहुँचने का वो इरादा।
दुनिया फतह करने का वो माद्दा ,
कहाँ खो गया सब...........
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वो मंजिल के लिए जलती चिंगारी ,
आज आग क्यों नहीं बनी।
समाज के दुश्मनों के साथ तेरी ,
आज क्यों नहीं ठनी।।
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कहाँ खो गया तेरा वो साहस ,
अपने हक़ की खातिर बड़े बड़ों के प्रति ,
तेरा वो दुस्साहस।।
कहाँ खो गया सब..............
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कहाँ है वो आशाओं के सपन ,
चरित्र की वो तपन।
कदमों की तरुणाई ,
और जुबां की ऊँचाई।।
कहाँ खो गया सब ..........
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क्या खो गया सबकुछ ,
आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में।
क्या खो गया सबकुछ ,
पैसे के गुणा -भाग...
घटाव और जोड़ में।।
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अरे! युवा है तू ..
पहचान खुद को ,
पिछलग्गू न बन,
जान खुद को।
दूसरों की न सुन ,
दे मान खुद को।।
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विश्व को एक दिशा तो दिखला जरा ,
अपने अंदर वो जोश ,
वो माद्दा तो ला जरा।
पहाड़ नहीं पत्थर ही हैं वे ,
इन रस्ते के अवरोधों को ,
मन से तो हिला जरा।।
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अनिल''अबूझ ''
शुक्रवार, 23 जनवरी 2015
पंचायत चुनाव
नमस्कार।
राजस्थान में ये वक़्त पंचायत चुनाव का है। चूँकि मैं भी राजस्थान के ही एक गांव का निवासी हूँ,इस चुनाव का विश्लेषण करने के लिए सर्वाधिक मुफ़ीद स्थिति में हूँ। ग्राम पंचायत चुनाव का उद्देश्य है -गांव की खुद की एक सरकार हो ,जिसमें सरपंच ,उपसरपंच व पंच मुख्यतः शामिल रहते हैं। ये सब मिलकर गांव की समस्याओं को अपने स्तर पर हल करें और जरूरत पड़ने पर गांव के लोगों की बात ऊपरी स्तर तक पहुँचायें।
लेकिन इधर मैनें जो देखा है उससे ये कतई नहीं लगता की कोई उम्मीदवार इनमें से एक भी मुद्दे पर चुनाव लड़ रहा है। हाँ ,इसके अलावा उनके पास मुद्दे बहुत हैं। जैसे कि -अगर आपका कोई अवैध धंधा है तो हम आपको शरण देंगे ,अगर आप दारूबाज हो तो आपको दारू मिलेगी ,पैसे की जहाँ तक बात है प्रति वोट दो हजार से लेकर पंद्रह- बीस हजार तक आपको मिलेंगे। और हाँ जातिगत एकता भी बनाये रखना जरूरी है ,तो फिर अपनी जात वाले को वोट देना तो बनता ही है न। कुछ गांव में तो हालात ये है कि बहुसंख्यक जाति वर्ग के अलावा आज तक कोई सरपंच बना ही नहीं।
जाहिर है यहाँ कोई लिखित घोषणापत्र न होकर फेस टू फेस वादे होते हैं। इन कुछ योजनाओं में तो ये भी देखने को मिला है कि जिसने तुलनात्मक रूप से अधिक पैसे खर्च किये, उसकी जीत पक्की। कुछ गांवों में तो पांच से छः हजार वोटों की पंचायत में उम्मीदवार एक से डेढ़ करोड़ रूपये खर्च कर डालते हैं। मैंने एक अनुभवी बुजुर्ग से ठेठ राजस्थानी में पूछा ,''ताऊजी !इतणा रिपिया लगार कोई काम कै करसी। ''(इतने रूपये खर्च कर कोई काम कितना करेगा। ) बुजुर्ग ने सपाट सा उत्तर दिया ,''बेटा चौधर री लड़ाई है। '' यानि यहाँ विकास कोई मुद्दा नहीं ,सब दबदबे की लड़ाई है।
बताइये !क्या ऐसे माहौल में कोई गरीब या निम्नमध्यमवर्गीय चुनाव लड़ने की सोच भी सकता है। कहते हैं ,लोकतंत्र का दरवाजा गांव से ही खुलता है। तो ये लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है। गांव के लोग चुनावी दिनों में भरी दुपहर में शराब पीकर टल्ली हुए घूमते हैं ,क्या उन्हें चुनाव के बाद सरपंच की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने का भी हक़ होगा।
प्रधानमंत्री जी गांव के विकास का महात्मा गांधी का सपना याद दिलाते हैं,तो उन्हें ये भी ध्यान करना होगा कि करोड़ों खर्च कर सरपंच बना व्यक्ति गांव का कौनसा विकास करेगा। सवाल यहां मैनस्ट्रीम मीडिया पर भी उठता है। तथाकथित महान जर्नलिस्टों को गांव क्यों नहीं याद आते ,क्यों उन्हें पंचायत चुनावों की ये गंदगी दिखाई नहीं देती।
अनिल ''अबूझ ''
गुरुवार, 8 जनवरी 2015
शहर -सैर(कविता)
नमस्कार।
रात के तकरीबन बारहेक बजे,जब नींद आँखों से कोसों दूर थी ! ठीक उसी समय की लिखी एक कविता साझा कर रहा हूँ। शीर्षक तो ''शहर -सैर '' है पर मेरे ख्याल से इस कविता में आज के समय की हक़ीक़त भी बयां हुई है। लीजिये पेश-ऐ-खिदमत है।
शहर में निकला हूँ ,
इस भागती शाम में।
रुकने का नाम नहीं जिंदगी ,
ये जतलाती सड़क,
फ़र्क़ नहीं करती खासो -आम में।।
फिर भी भाग रही इस दुनियां में ,
कोई तो होगा ठहरा हुआ सा।
आस -पास के शोरगुल से ,
चहल -पहल से ,
बहरा हुआ सा।।
यहाँ कोई है ताकतवर ,
तो कोई कमजोर।
और कोशिश करता कोई ,
सफलता को पुरजोर।।
कोई सपनों को बुनता हुआ सा ,
तो कोई उन्हें कातता हुआ सा।
कोई सपनों के पीछे ,
तो कोई आगे भागता हुआ सा।।
कोई ढांढस बंधाता ,
तो कोई मायूस करता है।
इस बेहया दुनियां में ,
इक आंसू ही तन्हाई में बरसता है।।
काटकर कोई ले जा रहा है ,
जीवन की डोर को।
तो कोई घर ला रहा है ,
अपने ढोर को।।
मन पता नहीं कुछ,
खट्टा सा क्यूँ है।
सारा रंजो -ग़म आज ,
इकट्ठा सा क्यूँ है।।
डोर किसी और हाथ में जा रही है ,
जीवन की पतंग की।
हो रही दुनियां अब ,
ये पतंगबाजी सी क्यूँ है।
मेहनत का अब भी नहीं कोई विकल्प यहाँ ,
परन्तु कुछ लोग कर रहे ,
ये दबंगबाजी सी क्यूँ है।।
लक्ष्य पाना आज भी कठिन है ,
परन्तु आज यहाँ ,
रास्ते पर डेरा बनाने वालों की अधिकता है।
भावनाओं की नहीं कोई कद्र ,
क्योंकि आज यहाँ ''अबूझ '',
जो दिखता है ,वही बिकता है।।।।
अनिल ''अबूझ''
गुरुवार, 1 जनवरी 2015
सबसे बड़ा दिन
नमस्कार।
लो पिता भी बन गया। आज धरती पर अपने होने का कुछ अहसास हुआ।
१५ दिसंबर १४ की रात लगभग ग्यारह बजे पत्नी को हस्पताल ले गया था। कोहरे भरी रात में पारिवारिक
सदस्यों का सहयोग बहुत रहा। सगे ऐसे मौकों पर ही काम आते हैं। मैं तो इस मामले में बहुत ही खुश्किस्मत
हूँ जो इतने भले लोगों से घिरा हूँ।
खैर ! दिसंबर की ठिठुरन भरी रात। डॉक्टरनी साहिबा ने बोला कि बच्चा सुबह ही हो पायेगा। चार -पांच बजे। मैं तो सो गया गाड़ी में हीटर चलाकर। सारी रात माता -पिता और भाई -बंधु जगे रहे। सुबह चार बजे किसी ने
चाय लाने के लिए जगाया। गाड़ी लेकर चाय लाने गया और आया तो हस्पताल में कुछ हलचल दिखी।
पता चला डिलिवरी होने वाली है। इससे पहले जब चार बजे जागा तो जागते हि मेरी जुबां पर एक ही बात थी,''लड़की होगी। '' क्योंकि कुछ देर पहले स्वप्न में मुझे दो x जुड़ते दिखे थे। अब आप कहोगे कि बड़ा सइंटिफ़िक सपना था। अरे भई ! विज्ञान का विद्यार्थी जो ठहरा।
किलकारियों से माहौल गूँज उठा। बाहर बैठे किसी सज्जन ने अनुमान लगाया ,''रोने की आवाज से तो लड़की लगती है। '' अंदर से नर्स ने आकर अनुमान को सही साबित कर दिया।
मन प्रफुल्लित हो उठा। रोमांच इतना था कि सर्दी का अहसास तक नहीं हो रहा था। १६ दिसंबर ,सुबह के पांच बजे,बिटिया। बस यही शब्द जहन में गूंज रहे थे।
मैं पिता बन चुका था ,एक प्यारी सी बिटिया का।
अनिल ''अबूझ ''
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