नमस्कार।
कुछ दो दिन पहले 'महिला दिवस' पूरे विश्व में धूमधाम से मनाया गया। हिंदुस्तान में भी महिलाओं की स्थिति,बलात्कार,घरेलू हिंसा आदि विषयों पर जमकर बहसें हुई। लेकिन मुझे लगता है कि हमारे यहां स्त्री के प्रति सोच का सही-सही अंदाजा भ्रूण हत्या के आंकड़ों को देखकर ही लगाया जा सकता है। इतने प्रयासों के बाद भी स्थिति जस की तस है। मेरी आज की कविता का विषय भी भ्रूण हत्या है। पेट में पल रही एक बच्ची की भी सुनिए जरा !!!!!
'' बच्ची ''
तन की कच्ची,
मन की सच्ची हूँ।
मां जच्चा है,
मैं बच्ची हूँ।।
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मां की कोख में बैठी,
बुन रही हूँ सपने।
मेरे जन्म पर,
क्या खुश होंगे मेरे अपने।।
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कहने को कहते हैं वो,
बच्चा भगवान का रूप होता है।
निडर ,कोमल ,सच्चा,
प्रभु का स्वरूप होता है।।
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फिर क्यूं भगवान के इन रूपों की,
कोख में ही बलि दी जाती है।
मेरे जैसी अनगिनत मासूम,
बाहर आने से पहले ही खत्म की जाती है।।
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ऐसा घृणित कार्य करने वालों,
हमारा कसूर बताओ।
बिन मां -बहिन रहोगे,
है मंजूर ! बताओ।।
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सवाल करती हूँ सामाजिक प्रक्रिया से भी,
दहेज़ जैसी जटिल क्रिया से भी।
क्या हम हैं कारण,
इस परम्परा की,
समाज को घोंटकर पीने वाली,
इस सुरा की।।
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क्यूं हमारा जीवन शुरू होने से पहले ही,
समाप्त किया जाता है।
जान -बूझकर लड़कियों का,
अकाल व्याप्त किया जाता है।
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कहती हूँ..... पछताओगे एक दिन,
अपनी गलतियां खुद ही,
जताओगे एक दिन।
खत्म होने की कगार पर,
होगी जब दुनिया हमारे बिन।
खुद को इंसान नहीं,
हैवान पाओगे एक दिन।।।।
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बहुत बढ़िया ...........भावपूर्ण!
जवाब देंहटाएंसार्थक टिप्पणी के लिए शुक्रिया। नमन।।
हटाएंसुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ।
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