बुधवार, 1 मार्च 2017

kavita jannat

जन्नत/अनिल अबूझ
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हमतुम चले तो जायें किसी दूसरी दुनियां में
एक-दूजे का हाथ पकड़
बेशक
मगर तुम्ही बताओ
वहाँ किसी बाजार में
किसी पानवाले ताऊ के पीछे
बीड़ी पीने को कोठा मिलेगा?
या फिर तेज अदरक की चाय
जो मौसी बनाती है
ये नहीं तो
दीपू भाट की दुकान के आगे जो चौकी है
वो तो मिलेगी? हथाई वास्ते!
बूढे बाबे का कर्मजुध्द देखने को आँखें नहीं तरस जायेंगी?
कान भी तो तरसेंगे बखू सांसी की ऊंची आवाज को
क्या कोई डरा पायेगा हमें बल्लू अंकल की तरह आँखों से
डांगर-ढोर के बिना क्या जी पायेंगे हम?
खेतों के बिना घुटकर मर जायेंगे यार
मेरी मानो! यहीं रूकते हैं
यही जन्नत है साथी||
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#जन्नत

kavita

फिर खिलेंगे फूल चमन में
धरती फिर लहरायेगी!
पीर लहू और ऊंची लपटें
पुरानी बातें हो जायेंगी!
फिर आयेंगे मेहमां अंगना में
फिर हलवे परोसे जायेंगे!
फिर प्रेमिल पवनें और बसंत सब
मिलजुल गीत रचायेंगे!
चंद दिन का ये कोहरा सखी
फिर मिलजुलकर रह पायेंगे||
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"अबूझ"

syah itihaas/kavita

#स्याह_इतिहास/अनिल अबूझ
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एक बार की बात है
कलम और लाठी में लड़ाई हो गई
लट्ठमारों ने घेर लिया कलम को
पर कलम न झुकी
उन्होने तोड़ दी कमर कलम की
पर चूँकि कलम में अब भी स्याही थी
कलम सच लिखती रही
बेधड़क लिखती रही
और इस प्रकार
उस समय का स्याह इतिहास लिखा गया...
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©अनिल_अबूझ

parda/kavita

#परदा/अनिल_अबूझ
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परदे के आगे
सारे कैरेक्टर हैं
दर्शकों से खचाखच भरा
हॉल है
पॉपकॉर्न खाते
बच्चे बूढे जवान हैं
अभिनय करते अभिनेता
प्रेम,ममता,आक्रोश
अपने चरम पर है
देशभक्ति का जोश
उबाल रहा लहू
माइक पर चीखते नेता
बादाम खाते अफसर
अभिजात्य अभिनेता
तालियों की गड़गड़ाहट
बच्चों की मुस्कानें
धर्म
घंटियाँ
अजान
सबकुछ है
लेकिन तभी
परदे के पीछे की
एक हल्की सी चीख
सन्न करती सबको
उजागर कर देती है
सारा नकलीपन
"मुझे रोटी चाहिए,मैं भूखा हूँ"
कुछ तो है जिसकी पर्देदारी है....
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©अनिल अबूझ