शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

पंचायत चुनाव

नमस्कार। 

      राजस्थान में ये वक़्त पंचायत चुनाव का है। चूँकि मैं भी राजस्थान के ही एक गांव का निवासी हूँ,इस चुनाव का विश्लेषण करने के लिए सर्वाधिक मुफ़ीद स्थिति में हूँ। ग्राम पंचायत चुनाव का उद्देश्य है -गांव की खुद की एक सरकार हो ,जिसमें सरपंच ,उपसरपंच व पंच मुख्यतः शामिल रहते हैं। ये सब मिलकर गांव की समस्याओं को अपने स्तर पर हल करें और जरूरत पड़ने पर गांव के लोगों की बात ऊपरी स्तर तक पहुँचायें। 
        लेकिन इधर मैनें जो देखा है उससे ये कतई नहीं लगता की कोई उम्मीदवार इनमें से एक भी मुद्दे पर चुनाव लड़ रहा है। हाँ ,इसके अलावा उनके पास मुद्दे बहुत हैं। जैसे कि -अगर आपका कोई अवैध धंधा है तो हम आपको शरण देंगे ,अगर आप दारूबाज हो तो आपको दारू मिलेगी ,पैसे की जहाँ तक बात है प्रति वोट दो हजार से लेकर पंद्रह- बीस हजार तक आपको मिलेंगे। और हाँ जातिगत एकता भी बनाये रखना जरूरी है ,तो फिर अपनी जात वाले को वोट देना तो बनता ही है न। कुछ गांव में तो हालात ये है कि बहुसंख्यक जाति वर्ग के अलावा आज तक कोई सरपंच बना ही नहीं। 
      जाहिर है यहाँ कोई लिखित घोषणापत्र न होकर फेस टू फेस वादे होते हैं। इन कुछ योजनाओं में तो ये भी देखने को मिला है कि जिसने तुलनात्मक रूप से अधिक पैसे खर्च किये, उसकी जीत पक्की। कुछ गांवों में तो पांच से छः हजार वोटों की पंचायत में उम्मीदवार एक से डेढ़ करोड़ रूपये खर्च कर डालते हैं। मैंने एक अनुभवी बुजुर्ग से ठेठ राजस्थानी में पूछा ,''ताऊजी !इतणा रिपिया लगार कोई काम कै करसी। ''(इतने रूपये खर्च कर कोई काम कितना करेगा। ) बुजुर्ग ने सपाट सा उत्तर दिया ,''बेटा चौधर री लड़ाई है। '' यानि यहाँ विकास कोई मुद्दा नहीं ,सब दबदबे की लड़ाई है। 
     बताइये !क्या ऐसे माहौल में कोई गरीब या निम्नमध्यमवर्गीय चुनाव लड़ने की सोच भी सकता है। कहते हैं ,लोकतंत्र का दरवाजा गांव से ही खुलता है। तो ये लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है। गांव के लोग चुनावी दिनों में भरी दुपहर में शराब पीकर टल्ली हुए घूमते हैं ,क्या उन्हें चुनाव के बाद सरपंच की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने का भी  हक़ होगा। 
   प्रधानमंत्री जी गांव के विकास का महात्मा गांधी का सपना याद दिलाते हैं,तो उन्हें ये भी ध्यान करना होगा कि करोड़ों खर्च कर सरपंच बना व्यक्ति गांव का कौनसा विकास करेगा। सवाल यहां मैनस्ट्रीम मीडिया पर भी उठता है। तथाकथित महान जर्नलिस्टों को गांव क्यों नहीं याद आते ,क्यों उन्हें पंचायत चुनावों की ये गंदगी दिखाई नहीं देती। 




                                                                     अनिल ''अबूझ ''

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

शहर -सैर(कविता)

               नमस्कार। 
       रात के तकरीबन बारहेक बजे,जब नींद आँखों से कोसों दूर थी ! ठीक उसी समय की लिखी एक कविता साझा कर रहा हूँ। शीर्षक तो ''शहर -सैर '' है पर मेरे ख्याल से इस कविता में आज के समय की हक़ीक़त भी बयां हुई है। लीजिये पेश-ऐ-खिदमत है। 

                   शहर में निकला हूँ ,

                                           इस भागती शाम में।

                    रुकने का नाम नहीं जिंदगी ,

                     ये जतलाती सड़क,

                                            फ़र्क़ नहीं करती खासो -आम में।।


                    फिर भी भाग रही इस दुनियां में ,

                                              कोई तो होगा ठहरा हुआ सा। 

                    आस -पास के शोरगुल से ,

                     चहल -पहल से ,

                                               बहरा हुआ सा।। 


                      यहाँ कोई है ताकतवर ,

                                                तो कोई कमजोर। 

                      और कोशिश करता कोई ,

                                                 सफलता को पुरजोर।।


                          कोई सपनों को बुनता हुआ सा ,

                                                  तो कोई उन्हें कातता हुआ सा। 

                      कोई सपनों के पीछे ,

                                                  तो कोई आगे भागता हुआ सा।। 


                       कोई ढांढस बंधाता ,

                                                 तो कोई मायूस करता है। 

                       इस बेहया दुनियां में ,

                                               इक आंसू ही तन्हाई में बरसता है।। 


                       काटकर कोई ले जा रहा है ,

                                               जीवन की डोर को। 

                       तो कोई घर ला रहा है ,

                                                अपने ढोर को।। 


                       मन पता नहीं कुछ,

                                             खट्टा सा क्यूँ है। 

                        सारा रंजो -ग़म आज ,

                                              इकट्ठा सा क्यूँ है।। 


                      डोर किसी और हाथ में जा रही है ,

                                               जीवन की पतंग की। 

                       हो रही दुनियां अब ,

                                               ये पतंगबाजी सी क्यूँ है। 

                        मेहनत का अब भी नहीं कोई विकल्प यहाँ ,

                           परन्तु कुछ लोग कर रहे ,

                                                ये दबंगबाजी सी क्यूँ है।। 


                       लक्ष्य पाना आज भी कठिन है ,

                             परन्तु आज यहाँ ,

                                                रास्ते पर डेरा बनाने वालों की अधिकता है। 

                       भावनाओं की नहीं कोई कद्र ,

                             क्योंकि आज यहाँ ''अबूझ '',

                                                 जो दिखता है ,वही बिकता है।।।। 



                                                                                                       अनिल ''अबूझ''


गुरुवार, 1 जनवरी 2015

सबसे बड़ा दिन

                         नमस्कार। 

  लो पिता भी बन गया। आज धरती पर अपने होने का कुछ अहसास हुआ। 
१५ दिसंबर १४ की रात लगभग ग्यारह बजे पत्नी को हस्पताल ले गया था। कोहरे भरी रात में पारिवारिक 
सदस्यों का सहयोग बहुत रहा। सगे ऐसे मौकों पर ही काम आते हैं। मैं तो इस मामले में बहुत ही खुश्किस्मत 
हूँ जो इतने भले लोगों से घिरा हूँ।
   खैर ! दिसंबर की ठिठुरन भरी रात। डॉक्टरनी साहिबा ने बोला कि बच्चा सुबह ही हो पायेगा। चार -पांच बजे। मैं तो सो गया गाड़ी में हीटर चलाकर। सारी रात माता -पिता और भाई -बंधु जगे रहे। सुबह चार बजे किसी ने 
चाय लाने के लिए जगाया। गाड़ी लेकर चाय लाने गया और आया तो हस्पताल में कुछ हलचल दिखी। 
    पता चला डिलिवरी होने वाली है। इससे पहले जब चार बजे जागा तो जागते हि मेरी जुबां पर एक ही बात थी,''लड़की होगी। '' क्योंकि कुछ देर पहले स्वप्न में मुझे दो x जुड़ते दिखे थे। अब आप कहोगे कि बड़ा सइंटिफ़िक सपना था। अरे भई ! विज्ञान का विद्यार्थी जो ठहरा। 
    किलकारियों से माहौल गूँज उठा। बाहर बैठे किसी सज्जन ने अनुमान लगाया ,''रोने की आवाज से तो लड़की लगती है। '' अंदर से नर्स ने आकर अनुमान को सही साबित कर दिया। 
    मन प्रफुल्लित हो उठा। रोमांच इतना था कि सर्दी का अहसास  तक नहीं हो रहा था। १६ दिसंबर ,सुबह के पांच बजे,बिटिया। बस यही शब्द जहन में गूंज रहे थे।

           मैं पिता बन चुका था ,एक प्यारी सी बिटिया का। 



                                                                                                    अनिल ''अबूझ ''