नमस्कार।
रात के तकरीबन बारहेक बजे,जब नींद आँखों से कोसों दूर थी ! ठीक उसी समय की लिखी एक कविता साझा कर रहा हूँ। शीर्षक तो ''शहर -सैर '' है पर मेरे ख्याल से इस कविता में आज के समय की हक़ीक़त भी बयां हुई है। लीजिये पेश-ऐ-खिदमत है।
शहर में निकला हूँ ,
इस भागती शाम में।
रुकने का नाम नहीं जिंदगी ,
ये जतलाती सड़क,
फ़र्क़ नहीं करती खासो -आम में।।
फिर भी भाग रही इस दुनियां में ,
कोई तो होगा ठहरा हुआ सा।
आस -पास के शोरगुल से ,
चहल -पहल से ,
बहरा हुआ सा।।
यहाँ कोई है ताकतवर ,
तो कोई कमजोर।
और कोशिश करता कोई ,
सफलता को पुरजोर।।
कोई सपनों को बुनता हुआ सा ,
तो कोई उन्हें कातता हुआ सा।
कोई सपनों के पीछे ,
तो कोई आगे भागता हुआ सा।।
कोई ढांढस बंधाता ,
तो कोई मायूस करता है।
इस बेहया दुनियां में ,
इक आंसू ही तन्हाई में बरसता है।।
काटकर कोई ले जा रहा है ,
जीवन की डोर को।
तो कोई घर ला रहा है ,
अपने ढोर को।।
मन पता नहीं कुछ,
खट्टा सा क्यूँ है।
सारा रंजो -ग़म आज ,
इकट्ठा सा क्यूँ है।।
डोर किसी और हाथ में जा रही है ,
जीवन की पतंग की।
हो रही दुनियां अब ,
ये पतंगबाजी सी क्यूँ है।
मेहनत का अब भी नहीं कोई विकल्प यहाँ ,
परन्तु कुछ लोग कर रहे ,
ये दबंगबाजी सी क्यूँ है।।
लक्ष्य पाना आज भी कठिन है ,
परन्तु आज यहाँ ,
रास्ते पर डेरा बनाने वालों की अधिकता है।
भावनाओं की नहीं कोई कद्र ,
क्योंकि आज यहाँ ''अबूझ '',
जो दिखता है ,वही बिकता है।।।।
अनिल ''अबूझ''
बढ़िया प्रस्तुति!
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