गुरुवार, 26 मार्च 2015

खुद से मिला हूँ जबसे (कविता)

नमस्कार!

   काफी उथल-पुथल है आजकल इस दुनिया में। रोज सैंकड़ों,हजारों,लाखों बल्कि करोड़ों घटनायें हमें प्रभावित करती है। उन घटनाओं में से कुछ को हम सही ठहराते हैं तो कुछ को गलत। ये सही-गलत बनाया किसने,सोचा है कभी? नहीं? तो कभी खुद के साथ भी बतियाइये,खुद से भी मिलिए जनाब। मैं तो मिलता हूँ खुद से। और खुद से मिलने के बाद क्या होता है,यही आज की मेरी कविता बताती है। 

        '' खुद से मिला हूँ जबसे ''

  कुछ खोया खोया रहता हूँ
  कुछ जागा कुछ सोया रहता हूँ।
  किसी की फ़िक्र नहीं है तबसे
  खुद से मिला हूँ जबसे।।
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   ये ये करता
   वो वो करता,
   जीने के लिए इंसान
   क्या क्या नहीं करता।
   कुछ करना लेकिन
   मेरे बस में नहीं है तबसे
   खुद से मिला हूँ जबसे।।
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   तेरी कही
   मेरी सुनी
   कुछ सच्ची
   कुछ बुनी।
   कुछ कह नहीं पाता लेकिन मैं तबसे
   खुद से मिला हूँ जबसे।।
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   ये जाये
   वो आये
   कोई निराश हो
   तो कोई पलकें बिछाये।
   किसी का आना जाना नहीं दिखता लेकिन मुझे तबसे
   खुद से मिला हूँ जबसे।।
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   कोई फूलों पर है चलता
   तो कोई काँटों के बीच मिलता।
   फूल-कांटे कुछ जान नहीं पाता हूँ लेकिन मैं तबसे
   खुद से मिला हूँ जबसे।।
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    ये अच्छा है
    वो बुरा है
    ये आधा है
    वो पूरा है।
    अच्छा -बुरा आधा पूरा
    कुछ समझ नहीं पाता हूँ मैं तबसे,
    खुद से मिला हूँ जबसे।।
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                                                         अनिल ''अबूझ''

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